नरक चतुर्दशी और दीपावली - धार्मिक मूल और महत्व

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नरक चतुर्दशी और दीपावली - धार्मिक मूल और महत्व

1 November, 2024

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2229 words

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|| हरि ॐ ||

यदि नरक चतुर्दशी भगवान श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर के वध की स्मृति में मनाई जाती है, तो केवल इसी असुर के वध का पर्व क्यों मनाया जाता है? श्रीकृष्ण ने अपने अवतार में कई अन्य असुरों का भी वध किया था, तो हम उन असुर-वधों का उत्सव क्यों नहीं मनाते?

मूल : डॉ. श्रीनिवास जम्मलमडाका, IKS स्कॉलर, सिद्धांत नॉलेज फाउंडेशन, सह-संस्थापक, कामेश्वरी फाउंडेशन
अनुवादक: रेणुका जोशी, अनिरुद्ध पटेल भुवनेश्वरी फाउंडेशन

परिचय

सनातन धर्म की पवित्र भूमि भारत (भारतवर्ष) के जनजीवन में अनेक कर्मकांड, उत्सव और प्रथाएँ प्रगाढ़ रूप से रची-बसी हैं। प्रत्येक परंपरा का एक विशिष्ट उद्देश्य और महत्व है। दीपावली और नरक चतुर्दशी ऐसे ही दो प्रमुख पर्व हैं जो उत्सवों की माला में मुख्य आभूषण माने जा सकते हैं। दुर्भाग्यवश, वर्तमान समय में प्रत्येक सनातन परंपरा को तोड़ने और उसके वास्तविक स्वरूप को बिगाड़ने का प्रयत्न किया जा रहा है। उदाहरणस्वरूप, दीपावली को केवल दीपों, मिठाइयों और प्रेम का उत्सव बताना या इसे पर्यावरण के लिए हानिकारक बता कर इसका अनादर करना।

इसी प्रकार, दीपावली को सनातन धर्म से पृथक करने के अनेक प्रयास किये जा रहे हैं, जिस प्रकार योग के साथ किया गया है। विज्ञापनों में बिना तिलक या बिंदी लगाए स्त्रियों को दीप जलाते हुए दिखाना भी इसी दिशा में एक प्रयास है। समय आ गया है कि हम इन सनातन प्रथाओं के मूल को समझें। क्या ये इतनी सतही हैं कि इन्हें आसानी से तोड़ा-मरोड़ा जा सके? प्रत्येक सनातनी को स्वयं से यह प्रश्न पूछना चाहिए और इन प्रथाओं की उत्पत्ति और महत्व को जानने का प्रयास करना चाहिए।

अधिकारण पद्धति

इस लेख में नरक चतुर्दशी और दीपावली के मूल और महत्व को पूर्व मीमांसा शास्त्र की अधिकरण पद्धति से समझाने का प्रयास किया गया है। यह पद्धति किसी विषय को तार्किक और वैज्ञानिक ढंग से सिद्ध या स्पष्ट करने का माध्यम है। इसका प्रयोग जैमिनीय मीमांसा सूत्र और बादरायण के ब्रह्म सूत्रों पर टीकाओं में किया गया है। अधिकरण के छह घटक होते हैं:

विषयो विशयश्चैव पूर्वपक्षस्तथोत्तरम्। प्रयोजनं सङ्गतिश्च शास्त्रेऽधिकरणं स्मृतम्॥
  1. संगति (चर्चा का संदर्भ)
  2. विषय (चर्चा का विषय)
  3. संशय (संदेह या विरोधाभास)
  4. पूर्वपक्ष (प्रारंभिक समझ)
  5. सिद्धांत (अंतिम निष्कर्ष)
  6. प्रयोजन (चर्चा का उद्देश्य)

इस पद्धति से किसी विषय की चर्चा या व्याख्या पूर्ण रूप से स्पष्ट होती है जिससे विषयांतर से बचा जा सकता है।

संगति

प्रत्येक वर्ष जब नरक चतुर्दशी और दीपावली के पर्व समीप आते हैं, तब पटाखों को लेकर विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। कई लोग इन्हें पर्यावरण के अनुकूल बनाने देते हैं। यह प्रश्न भी उठता है कि क्या नरक चतुर्दशी का पर्व समाज में ऊँच-नीच का प्रतीक है? इसके अतिरिक्त कई लोग दीपावली के उत्सव पर अवांछित परामर्श देते हैं।

यह प्रचार किया जाता है कि ‘रमज़ान’ में ‘राम’ और ‘दीवाली’ में ‘अली’ है जिससे यह सिद्ध हो सके कि भारत में भाईचारा स्वाभाविक है। साथ ही, यह कहा जाता है कि दीपावली को बिना पटाखे जलाये भी मनाया जा सकता है। इससे पर्यावरण प्रदूषित होने से बचता है।

विषय

नरक चतुर्दशी और दीपावली दो ऐसे पर्व हैंजो संपूर्ण भारत सहित विदेश में बसे भारतीय समुदायों द्वारा मनाए जाते हैं। नरक चतुर्दशी आश्विन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है और दीपावली अमावस्या के दिन।

संशय

इन त्योहारों से जुड़े कुछ प्रश्न समय-समय पर उठते हैं। यदि नरक चतुर्दशी श्रीकृष्ण द्वारा नरकासुर के वध की स्मृति में मनाई जाती है, तो केवल इसी असुर के वध को क्यों मनाया जाता है? श्रीकृष्ण ने तो अपने अवतार में कई अन्य असुरों का भी संहार किया था, उन असुरों का वधोत्सव क्यों नहीं मनाया जाता?

कुछ प्राचीन कहानियों में कि युद्ध के समय श्रीकृष्ण नरकासुर के अस्त्र से मूर्छित हो गए थे और तब सत्यभामा ने नरकासुर का वध किया।

दीपावली को प्रकाश का पर्व कहा जाता है जिसमें हम अपने घरों को दीपों से सजाते हैं। विशेष रूप से इसी दिन दीप जलाने का क्या महत्व है? क्या इसका कोई गहन उद्देश्य या उत्पत्ति है?

पूर्वपक्ष

प्रारंभिक समझ यह थी कि यह एक सांस्कृतिक पर्व है। नरकासुर अधर्म और बुराई का प्रतीक है, जबकि श्रीकृष्ण और सत्यभामा द्वारा उसका वध धर्म और सदाचार की विजय का प्रतीक है।

इसी प्रकार, दीपावली में दीप जलाना ज्ञान का प्रतीक है, जबकि अमावस्या की रात का अंधकार अज्ञान का। ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का नाश होता है। लेकिन इन पर्वों का वास्तविक उद्देश्य और भी गूढ़ है।

सिद्धांत

धर्मसिंधु एक प्रमुख धर्मशास्त्र है जिसमें कई शुभ अवसरों के विधि-विधान बताए गए हैं। इस ग्रंथ में नरक चतुर्दशी का वर्णन भी मिलता है। इस शास्त्र के अनुसार इस दिन पाँच कार्य अनिवार्य माने गए हैं:

  1. तैलाभ्यंग स्नान
  2. कार्तिक स्नान
  3. यम तर्पण
  4. उल्का दान एवं प्रदर्शन
  5. दीप प्रज्वलन

तैलाभ्यंग स्नान

यहाँ तैल का अर्थ तिल का तेल और अभ्यंग का अर्थ है शरीर पर तेल इस प्रकार लगाना कि वह सभी अंगों में पूर्णतः लग जाए। जब तेल को कंधों पर डालकर अङ्गमर्दन किया जाता है, तो उसे अभ्यंग कहते हैं। श्री वाग्भट द्वारा रचित अष्टांग हृदय (आयुर्वेदिक ग्रंथ) के अनुसार, अभ्यंग दिनचर्या का भाग है। स्वस्थ रहने हेतु, स्नान से पहले शरीर पर तेल लगाने और व्यायाम करने का परामर्श दिया जाता है। यह आयुर्वेद की अनुशंसा है। धर्मशास्त्रों के अनुसार, विशेष अवसरों, जैसे जन्मदिन या विशिष्ट त्योहारों पर भी अभ्यंग का महत्व है। इसे नैमित्तिक कर्म माना गया है जो उस दिन के लिए अनिवार्य होता है। इस कारण यदि कोई व्यक्ति नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान नहीं करता है तो उसे पाप लगता है। इसलिए यह कहा गया है:

नरकभीरुभिः तैलेन अभ्यङ्गस्नानं कार्यम्

जो नरक से डरते हैं उन्हें नरक चतुर्दशी पर अभ्यंग स्नान अवश्य करना चाहिए। [2]

तिल का तेल क्यों?

आयुर्वेद में तिल के तेल को तेलों का राजा माना गया है। इसमें सभी अन्य तेलों के गुण होते हैं। नरक चतुर्दशी के समय भारत के अधिकांश भागों में शीतकाल आरम्भ हो जाता है। तिल के तेल से अभ्यंग करने से शरीर में उचित मात्रा में ताप उत्पन्न होता है, जिससे शरीर का तापमान संतुलित रहता है।

अभ्यंग के बाद स्नान (स्नानम) किया जाता है। स्नान से पहले हल (हल का फाल) से निकाली गई मिट्टी का एक छोटा गोला और अपामार्ग (उत्तरैणी / Achyranthes Aspera) की टहनी को पानी में तीन बार घुमाते हुए निम्नलिखित मंत्र का उच्चारण किया जाता है –

सीतालोष्टसमायुक्त सकंटकदलान्वित।
हर पापमपामार्ग भ्राम्यमाणः पुनःपुनः॥

(हे अपामार्ग! जिन्हें हल से निकाली गयी मिट्टी के साथ बार-बार जल में घुमाया जा रहा है, मेरा पाप समाप्त करें।)

स्नान के बाद तिलक धारण (माथे पर तिलक लगाना) करना अनिवार्य है। इसके बाद नित्य अनुष्ठान (दैनिक पूजा और कर्म) संपन्न किया जाता है।

कार्तिक स्नान

नित्य अनुष्ठान (दैनिक पूजा और कर्म) के पश्चात पुनः स्नान करना आवश्यक है। इसे कार्तिक स्नान या दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में गंगा स्नान भी कहा जाता है। कार्तिक स्नान भी एक प्रकार का नैमित्तिक कर्म है। यह स्नान आश्विन शुक्ल दशमी, एकादशी या पूर्णिमा से प्रारंभ होकर एक माह तक, अर्थात कार्तिक पूर्णिमा तक, प्रतिदिन प्रातःकाल के स्नान और नित्य अनुष्ठान के बाद करना अनिवार्य माना जाता है। यह स्नान भगवान विष्णु की कृपा प्राप्ति के लिए किया जाता है।

कार्तिक स्नान की प्रक्रिया

1. सबसे पहले भगवान विष्णु को अर्घ्य (जल) अर्पित करते हुए यह मंत्र बोलें –
नमः कमलनाभाय नमस्ते जलशायिने।
नमस्तेऽस्तु हृषीकेश गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तु ते॥

2. इसके बाद स्नान करते समय यह मंत्र उच्चारित करें –
कार्तिकेऽहं करिष्यामि प्रातःस्नानं जनार्दन।
प्रीत्यर्थं तव देवेश दामोदर मया सह॥
ध्यात्वाऽहं त्वां च देवेश जलेऽस्मिन् स्नातुमुद्यतः।
तव प्रसादात्पापं मे दामोदर विनश्यतु॥

3. स्नान के बाद पुनः दो बार अर्घ्य अर्पित करें और यह मंत्र बोलें –
नित्ये नैमित्तिके कृष्ण कार्तिके पापनाशने।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे।
व्रतिनः कार्तिके मासि स्नातस्य विधिवन्मम।
गृहाणार्घ्यं मया दत्तं राधया सहितो हरे॥

यदि कोई व्यक्ति पूरे माह कार्तिक स्नान नहीं कर पाता है तो वह कम से कम तीन दिन यह स्नान कर सकता है। यदि यह भी संभव न हो तो नरक चतुर्दशी के दिन कार्तिक स्नान अवश्य करना चाहिए।

यम तर्पण

कार्तिक स्नान के बाद यम तर्पण करना आवश्यक होता है। तर्पण एक प्रकार का अर्घ्य है जिसमें देवताओं को जल अर्पित कर श्रद्धांजलि दी जाती है। यम तर्पण में यमराज के 14 नामों का उच्चारण करते हुए जल अर्पित किया जाता है –

यमाय(1) धर्मराजाय(2) मृत्यवे(3) च अंतकाय(4) च।
वैवस्वताय(5) कालाय(6) सर्वभूतक्षयाय(7) च॥
औदुंबराय(8) धर्माय(9) नीलाय(10) परमेष्ठिने(11)।
महोदराय(12) चित्राय(13) चित्रगुप्ताय(14) ते नमः॥

तर्पण के समय अर्घ्य देते हुए जल अंगुलियों के अग्रभाग (देवतीर्थ) से या अंगूठे और तर्जनी के बीच के स्थान (पितृतीर्थ) से गिराना चाहिए। “तर्पयामि” शब्द को तीन बार दोहराया जाता है। उदाहरण के लिए:

“यमाय तर्पयामि, तर्पयामि, तर्पयामि। धर्मराजाय तर्पयामि, तर्पयामि, तर्पयामि।” इसी प्रकार अन्य नामों के साथ भी उच्चारण होता है।

तर्पण करते समय दक्षिण दिशा की ओर मुख रखना चाहिए, क्योंकि यह दिशा यमराज की मानी जाती है। यह तर्पण केवल उन्हीं पुरुषों के लिए अनिवार्य है जिन्होंने उपनयन संस्कार प्राप्त किया हो। तर्पण के समय यज्ञोपवीत (जनेऊ) को निवीता रूप (माला की तरह कंधे पर लिपटा हुआ) में धारण करना चाहिए। जिन स्त्रियों और पुरुषों का उपनयन संस्कार नहीं हुआ है, वे उपर्युक्त श्लोकों का उच्चारण करके दक्षिण दिशा की ओर जल अर्पित कर सकते हैं।

उल्का दान और उल्का प्रदर्शन

उल्का का अर्थ होता है प्रकाश उत्पन्न करने वाली वस्तु। इस संदर्भ में इसका अर्थ फुलझड़ियों और पटाखों से है। यम तर्पण के बाद उल्का दान का विधान है, जिसका अर्थ है दूसरों को पटाखे और फुलझड़ियाँ दान करना।

उल्का दान का उद्देश्य

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष को महालय पक्ष या पितृ पक्ष कहा जाता है। इस समय हमारे पूर्वज आशीर्वाद देने के लिए पृथ्वी लोक पर आते हैं। इसलिए इन पंद्रह दिनों में श्राद्ध कर्म किए जाते हैं। पितर नरक चतुर्दशी के दिन पितृलोक लौटते हैं। माना जाता है कि रात में पटाखे और फुलझड़ियाँ जलाकर उनके मार्ग को प्रकाशित करने में सहायता मिलती है, जिससे वे अपनी यात्रा सरलता से पूरी कर सकें।

इस अवसर पर उल्का दान करते समय यह मंत्र उच्चारित करना चाहिए –
अग्निदग्धाश्च ये जीवाः येऽप्यदग्धाः कुले मम॥
उज्ज्वलज्ज्योतिषा दग्धाः ते यांतु परमां गतिम्।
यमलोकं परित्यज्य आगता ये महालये॥
उज्ज्वलज्ज्योतिषा वर्त्म प्रपश्यंतु व्रजंतु ते॥

(मेरे कुल के जो पितर अग्निदाह प्राप्त कर चुके हैं और जो नहीं कर सके हैं, वे सभी उत्तम गति को प्राप्त हों। महालय पक्ष के समय जो पितर पृथ्वी लोक पर आए थे, वे हमारे द्वारा जलाए गए प्रकाश के माध्यम से अपना मार्ग देख सकें और पितृलोक लौट जाएँ।)

इस दिन संध्या के समय दीप जलाने का विधान है, और साथ ही आकाश को पटाखों और फुलझड़ियों से प्रकाशित करने की परंपरा भी है।

नरकासुर वध और नरक चतुर्दशी का संबंध

इस संदर्भ में नरकासुर वध का कोई उल्लेख नहीं मिलता है। नरक चतुर्दशी का संबंध मुख्यतः यमराज और पितृ देवताओं से है। कुछ लोग मानते हैं कि नरक चतुर्दशी का संबंध नरकासुर वध से है, किन्तु इसके प्रमाण नहीं मिलते।

नरकासुर वध की कथा तीन स्थानों पर मिलती है –

  1. श्रीमद्भागवत (दसवाँ स्कंध, उत्तरार्ध, अध्याय 59)
  2. हरिवंश पुराण (महाभारत का परिशिष्ट) (दूसरा पर्व, विष्णु पर्व, अध्याय 63)
  3. विष्णु पुराण (पाँचवाँ अंश, अध्याय 29)

इन तीनों ग्रंथों में नरकासुर वध की कथा समान है:

  • नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुर का राजा था।
  • वह भूमि देवी (भूदेवी) का पुत्र था इसलिए उसे भौम या भौमासुर भी कहा जाता है।
  • उसने अदिति के कुंडल चुरा लिए थे। - उसने विभिन्न राजाओं और देवताओं की 16,000 कन्याओं को बंदी बना रखा था।
  • देवताओं के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने सत्यभामा के साथ नरकासुर का वध किया।
  • इसके बाद भूमि देवी ने अदिति के कुंडल लौटा दिए।

इन स्रोतों में कहीं भी नरक चतुर्दशी और नरकासुर वध के बीच कोई संबंध स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है। न ही श्रीकृष्ण के मूर्छित होने और सत्यभामा द्वारा नरकासुर वध की कथा का कोई उल्लेख मिलता है।

हालाँकि, नरक चतुर्दशी को नरकासुर वध से जोड़ने में कोई हानि नहीं है, किन्तु इस पर्व की उत्पत्ति और वास्तविक महत्व को न जानना आज की स्थिति में कई भ्रांतियों को जन्म दे रहा है।

दीपावली

आश्विन मास की अमावस्या को दीपावली कहा जाता है। दीपावली का शाब्दिक अर्थ है प्रदीपों की पंक्ति। इस दिन निम्नलिखित कार्य करना अनिवार्य है:

  • अभ्यंग स्नान
  • दीप दान
  • लक्ष्मी पूजन
  • दीप प्रज्वलन
  • उल्का प्रदर्शन

इन सभी का उद्देश्य लक्ष्मी प्राप्ति (समृद्धि) और अलक्ष्मी निवारण (दरिद्रता का नाश) है। यहाँ समृद्धि का अर्थ केवल धन से नहीं है, अपितु मानसिक शांति, भोजन, परिवार, और संतान सुख भी इसमें सम्मिलित हैं।

प्रयोजन

इस प्रकार, नरक चतुर्दशी और दीपावली का प्रगाढ़ संबंध हमारे पुराणों और धर्मशास्त्रों से है, और इनसे जुड़े कर्मकांडों व प्रथाओं का बहु-स्तरीय महत्व है।अपनी प्राचीन परंपराओं के इन तत्वों की पुनः खोज हम सभी के भीतर गौरव और आत्मविश्वास को पुनर्जीवित करेगी और अंततः एक महान भारतीय पुनर्जागरण का मार्ग प्रशस्त करेगी।

यदत्र सौष्ठवं किञ्चित् तद्गुरोरेव मे न हि।
यदत्राऽसौष्ठवं किञ्चित् तन्ममैव गुरोः न हि॥

यदि मेरे लेखन में कोई गुण हो, तो वह मेरे गुरुजनों का है, और यदि कोई त्रुटि हो, तो उसका दायित्व मेरा है।

एतत् फलं श्री परमेश्वरार्पणमस्तु॥

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